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Shailendra

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Submitted By baqarbuqqa
Words 1953
Pages 8
Shailendra Vajpayee
7 hours ago ·
2014 की उम्मीद तले 62 बरस का अंधेरा:- 15 अगस्त 1947 को आधी रात जब जवाहरलाल नेहरु भारत को गुलामी की जंजीरों से मुक्ति का एलान दिल्ली में संसद के भीतर कर रहे थे। उस वक्त देश की आजादी के नायक महात्मा गांधी दिल्ली से डेढ़ हजार किलोमीटर दूर कोलकत्ता के बेलीघाट में अंधेरे में समाये एक घर में बैठे थे। और शायद तभी संसद और समाजिक सरोकार के बीच पहली लकीर सार्वजनिक तौर पर खींची। क्योंकि आजादी के जश्न को गांधी आजादी के बाद की त्रासदी से इतर देख रहे थे। और बीते 62 बरस की संसदीय राजनीति की सियासत ने गांधी की खींची लकीर को कहीं ज्यादा गहरा और मोटा बना दिया। दर्द यह नहीं कि आज भी कोई अंधेरे कमरे में बैठ देश की आजादी के बाद की त्रासदी पर गुस्से में रहे। दर्द यह है कि इसी दौर में इसी त्रासदी को लोकतंत्र मान लिया गया और उसी लोकतंत्र के सुर में देश की सभी संवैधानिक सस्थायें अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ सुर मिलाने लगी। और झटके में देश के 80 फीसदी तक लोगों ने महसूस करना शुरु कर दिया कि भारत के नागरिक होकर भी भारत उनके लिये नहीं। संविधान के मौलिक अधिकारों पर भी उनका हक नहीं। संसद की नीतियां उनके लिये नहीं। पीने का पानी हो या दो जून की रोटी या फिर शिक्षा हो या इलाज या महज एक छत। यह सब पाने के लिये जेब भरी होनी चाहिये और अगर जेब खाली है तो बिना सियासी घूंघट डाले कुछ नसीब हो नहीं सकता। यह रास्ता नेहरु के पहले मंत्रिमंडल की नीतियों से ही बनना शुरु हुआ था और 1991 के बाद सबकुछ बाजार के हवाले करने की नीति ने इसे इतनी हवा दे दी कि झटके में देश का सोशल इंडेक्स ही उड़नछू हो गया। यानी सामाज को लेकर ना कोई जिम्मेदारी सरकार की ना ही बाजार की। सरकार को बाजार से कमीशन चाहिये और बाजार को समाज से मुनाफा। तो आम आदमी के खून को निचोड़ने से लेकर देश को लूटने का अधिकार पाने के लिये सरकार में आने का खेल एक तरफ और सरकार के साथ मिलकर मुनाफा बनाने-कमाने का खेल दूसरी तरफ। इस खेल में हर कोई जिम्मेदारी मुक्त। इस रास्ते को बदले कौन और बदलने का रास्ता हो कौन सा। ध्यान दें तो बीते 62 बरस की सियासत में कभी यह सवाल नहीं उभरा कि राजनीतिक विचारधारायें बेमानी लगने लगी हैं। संविधान के सामाजिक सरोकार नहीं हैं। सत्ता सरकार और हर घेरे में ताकतवर की अंटी में बंधी पड़ी है। लेकिन पहली बार 2013 के दिल्ली चुनाव परिणाम से बनी सत्ता ने महात्मा गांधी की उस लकीर पर ध्यान देने को मजबूर किया जो नेहरु के एतिहासिक भाषण को सुनने की जगह बंद अंधेरे कमरे में बैठकर 15 अगस्त 1947 को महात्मा गांधी ने ही खींची थी। तो क्या मौजूदा वक्त में समूची राजनीतिक व्यवस्था को सिरे से उलटने का वक्त आ गया है। या फिर देश की आवाम अब प्रतिनिधित्व की जगह सीधे भागेदारी के लिये तैयार है। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि एक तरफ दिल्ली में ना तो कोई ऐसा महकमा है और ना ही कोई ऐसी जरुरत जो पहली बार नयी सरकार के दरवाजे पर इस उम्मीद और आस से दस्तक ना दे रही हो, जिसे पूरा करने के लिये सियासी तिकड़म को ताक पर रखना आना चाहिये। पानी, बिजली, खाना, शिक्षा, इलाज,घर और स्थायी रोजगार। ध्यान दें तो बीते 62 बरस की सियासत के यही आधार रहे । और 1952 में पहले चुनाव से लेकर 2014 के लिये बज रही तुतहरी में भी सियासी गूंज इन्ही मुद्दों की है। तो क्या बीते 62 बरस से देश वहीं का वहीं है। हर किसी को लग सकता है कि देश को बहुत बदला है । काफी तरक्की देश ने की है । लेकिन बारीकी से देश के संसदीय खांचे में सियासी तिकड़म को समझे तो हालात 1952 से भी बदतर नजर आ सकते हैं। फिर 2013 के दिल्ली चुनाव परिणाम से होने वाले असर को समझना आसान होगा। देश के पहले आम चुनाव 1952 में कुल वोटर 17 करोड 32 लाख थे। और इनमें से 10 करोड़ 58 लाख वोटरों ने वोट डाले थे। और जिस कांग्रेस को चुना उसे 4 करोड़ 76 लाख लोगों ने वोट डाले गये। वहीं 2009 में कुल 70 करोड़ वोटर थे। इनमें से सिर्फ 29 करोड़ वोटरों ने वोट डाले। और जो कांग्रेस सत्ता में आयी उसे महज 11 करोड़ वोटरों ने वोट दिये। जबकि 1952 के वक्त के चार भारत 2009 में जनसंख्या के लिहाज से भारत है। तो पहला सवाल जिस तादाद में 1952 में पानी, शिक्षा , बिजली, खाना, इलाज , घर या रोजगार को लेकर तरस रहे थे 2013 में उससे कही ज्यादा भारतीय नागरिक उन्हीं न्यूतम मुद्दों को लेकर तरस रहे हैं। तो फिर संसदीय राजनीतिक सत्ता कैसे और किस रुप में आम आदमी के हक में रही। हालांकि लोकतंत्र के पाठ को संविधान के खांचे यह कहकर राजनीति करने वाले दल या राजनेता सही ठहरा देते हैं कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का ही यह मिजाज है कि चुनी गई सरकारो को लगातार सबसे ज्यादा वोट दे रहे है और उनकी संख्या लगातार बढ रही है। लेकिन सच यह भी नहीं है। 1977 में ही जिस आपातकाल के बाद पहली बार देश में कांग्रेस की सत्ता के खिलाफ हवा बही, उस वक्त भी देश के कुल 32 करोड़ वोटरो में से सिर्फ 7 करोड़ 80 लाख वोटरों ने ही जेपी के हक में मोरारजी देसाई को पीएम बनाया। और भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन खड़ा कर, जो वी पी सिंह 1989 में प्रधानमंत्री बने, उन्हे उस वक्त 1957 की तुलना में भी सत्ताधारी से कम वोट मिले थे। सिर्फ 5 करोड़ 35 लाख। दरअसल, यह आंकडे इसलिये क्योंकि लोकतंत्र और आजादी का मतलब होता क्या है या फिर किसी भी देश में आम आदमी की हैसियत सत्ता के कठघरे में कितनी कमजोर होती है, इसका एहसास पढ़ने वाले को हो जाये। और उसके बाद जिन दो सवालों को 2013 के दिल्ली चुनाव परिणाम से बनी सत्ता ने जन्म दिया है उस पर लौटे तो आम आदमी पार्टी ने पहली बार आम आदमी को इसका अहसास कराया कि वोट का महत्व होता क्या है और क्यों हर रईस और गरीब वोट देने के अधिकार के दायरे में अगर बराबर है तो फिर सत्ता संभालने के लिये आम आदमी की शिरकत क्या रंग दिखा सकती है । और पहली बार प्रतिनिधित्व की जगह सीधे सत्ता में भागेदारी क्यों नहीं हो सकती । और अगर सीधी भागेदारी हो सकती है तो फिर जिन्दगी जीने से जुड़े न्यूनतम जरुरत के मुद्दे पूरे क्यों नहीं हो सकते है और सियासी अर्थव्यवस्था की सिरे से उलटा क्यों नहीं जा सकता है। अगर नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था के तहत आने वाले सुविधाभोगी नागरिकों की तुलना में देश के तमाम नागरिकों के हालात को परखे तो सरकारी आंकड़े ही यह बताने के लिये काफी होंगे की देश के 13 फीसदी लोग देश के 65 फीसदी लोगों के बराबर संस्थानों का उपभोग कर लेते हैं। और सिर्फ देश के ढाई फीसदी लोगो के पास उपभोग की जो वस्तुये बाजार भाव से मौजूद है, उस तुलना में 52 फीसदी देश के लोग भोगते हैं। तो इतनी असमानता वाले समाज में सत्ताधारी होने का मतलब क्या क्या हो सकता है और सत्ता बनाने बिगाडने या सत्ता को चलाने वाली ताकतें जो भी होंगी उनके लिये भारत जन्नत से कम कैसे हो सकता है और जो ताकत नहीं होंगे, वह कैसे नरक सा जीवन जीने को मजबूर होंगे, यह किसे से छुपा रह नहीं सकता है। तो इसी लकीर को अगर 2013 के दिल्ली चुनावी परिणाम की सीख के तौर पर परखे तो वह आधे दर्जन मुद्दे जो न्यूनत जरुरत पानी और बिजली शुरु होते हैं। इलाज और भोजन पर रुकते हैं। रोजगार से लेकर एक अदद छत पाने को ही सबसे महत्वपूर्ण मानते है, उससे कैसे सियासी सत्ता की आड़ में 62 बरस से खिलवाड़ होता रहा। यह सब सामने आ सकता है। 2014 के लिये यह सोचना कल्पना हो सकता कि 21 मई 2014 को जब देश में नयी सरकार शपथ लें तो वह वाकई आम आदमी के मैनिफेस्टो पर बनी सरकार हो। जहां राजनीतिक विचारधारा मायने ना रखे। जहा वामपंथी या दक्षिणपंथी धारा मायने ना रखे। जहां जातीय राजनीति या धर्म की राजनीति बेमानी साबित हो। और देश के सामने यही सवाल हो पहली बार हर वोटर को जैसे वोट डालने का बराबर अधिकार है वैसे ही न्यूनतम जरुरत से जुड़े आधे दर्जन मुद्दो पर भी बराबर का अधिकार होगा। तो पानी हो या बिजली या फिर इलाज या शिक्षा । और रोजगार या छत । इस दायरे में देश में मौजूदा अर्थव्यवस्था के दायरे में अगर वाकई प्रति व्यक्ति आय 25 से 30 हजार रुपये सालाना हो चुकी है । तो फिर उसी आय के मुताबिक ही सार्वजनिक वितरण नीति काम करेगी। सरकार के आंकड़े कहते है कि देश में प्रति व्यक्ति आय हर महीने के ढाई हजार रुपये पार कर चुके है तो फिर इस दायरे में तो हर परिवार को उतनी सुविधा यू ही मिल जानी चाहिये जो सब्सिडी या राजनीतिक पैकेज के नाम पर सियासी अर्थव्यवस्था करती है। यह सीख 2013 से निकल कर 2014 के लिये इसलिये दस्तक दे रही है क्योंकि दिल्ली चुनाव में जो जीते है वह पहली बार सरकार चलाने के लिये सत्ता तक चुनाव जीत कर नहीं पहुंचे बल्कि समाज में जो वंचित है, उन्हें उनके अधिकारों को पहुंचाने की शपथ लेकर पहुंचे हैं। और पारंपरिक राजनीति के लिये यह सोच इसलिये खतरनाक है क्योंकि यह परिणाम हर अगले चुनाव में कही ज्यादा मजबूत होकर उभर सकते हैं। क्योंकि 2014 के चुनाव के वक्त देश में कुल 75 से 80 करोड़ तक वोटर होंगे। और पारंपरिक राजनीति को सत्ता में आने के लिये 12 से 15 करोड वोटर की ही जरुरत पड़ेगी। लेकिन यह आंकडे तब जब देश में 35 से 37 करोड़ तक ही वोट पड़ें । लेकिन आम आदमी की भागेदारी ने अगर दिल्ली की तर्ज पर 2014 में समूचे देश में वोट डाले तो वोट डालने वालों का आंकड़ा 45 से 50 करोड़ तक पहुंच सकता है। यानी जो पारंपरिक राजनीति 12 से 15 करोड तक के वोट से सत्ता में पहुंचने का ख्वाब देख रही है, उसके सामानांतर झटके में आम आदमी 8 से 10 करोड़ नये वोटरो के साथ खड़ा होगा और जब पंरपरा टूटती दिखेगी तो 5 करोड़ वोटर से ज्यादा वोटर जो जातीय या धर्म के आसरे नहीं बंधा है या खुद को हर बार छला हुआ महसूस करता है, वह भी खुद को बदल सकता है। तब देश में एक नया सवाल खड़ा होगा क्या वाकई काग्रेस -भाजपा या क्षत्रपो की फौज अपने राजनीतिक तौर तरीको को बदलगी। क्योंकि आम आदमी की अर्थव्यवस्था को जातीय खांचे या वोट बैंक की राजनीति या फिर मुनाफा बनाकर सरकार को ही कमीशन पर रखने वाली निजी कंपनियो या कारपोरेट की अर्थव्यवस्था से अलग होगी । तब क्या विकास का सवाल पीछे छूट जायेगी। या फिर 1991 में विकास के नाम पर जिस कारपोरेट या निजी कंपनियो के साथ सियासी गठजोड ने उड़ान भरी उसपर ब्रेक लग जायेगा । यह सवाल आपातकाल से लेकर मंडल-कंमडल या खुली बाजार अर्थव्यवस्था के दायरे में बदली सत्ता के दौर में मुश्किल हो सकता है। लेकिन 2013 के बाद यह सवाल 2014 में मुश्किल इसलिये नहीं है क्योंकि अरविन्द केजरीवाल ने कोई राजनीतिक विचारधारा खिंच कर खुद पर ही सत्ता को नहीं टिकाया है बल्कि देश के सामने सिर्फ एक राह बनायी है कि कैसे आम आदमी सत्ता पलट कर खुद सत्ताधारी बन सकता है । इसलिये दिल्ली में केजरीवाल फेल होते हैं या पास सवाल यह नहीं है। सवाल सिर्फ इतना है कि 2013 के दिल्ली चुनाव परिणाम ने 2014 के चुनाव को लेकर एक आस एक उम्मीद पैदा की है कि आम आदमी अगर चुनाव को आंदोलन की तर्ज पर लें तो सिर्फ वोट के आसरे वह 62 बरस पुरानी असमानता की लकीर को मिटाने की दिशा में बतौर सरकार पहली पहल कर सकता है।